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कविता

हम भक्तनि के भक्त हमारे

सूरदास


हम भक्तनि के भक्त हमारे।
सुनि अर्जुन परतिग्या मेरी, यह ब्रत टरत न टारे।
भक्तनि काज लाज जिय धरि कै, पाइ पियादे धाऊँ।
जहँ जहँ पीर परै भक्तनि कौं, तहँ तहँ जाइ छुड़ाऊँ।
जो भक्तनि सौं बैर करत है, सो निज बैरी मेरौ।
देखि बिचारि भक्त हित कारन, हौं हाँकत रथ तेरौ।
जीतें जीति भक्त अपनै के, हारैं हारि बिचारौं।
सूरदास सुनि भक्त बिरोधी, चक्र सुदरसन जारौं।।


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